मजदूर होना बहुत ही मजबूर होना है।"

"मजदूर होना बहुत ही मजबूर होना है।"


 


हाल के विस्थापन पर सोशल मीडिया से दो बातें साभार- 


कुछ अमीर प्लेन में बैठकर बीमारी लाए


और 


गरीब ट्रेन में बैठकर घर भी नहीं जा पाए।


 


गुनाह पासपोर्ट का था, 


दर बदर राशन कार्ड हो गए। 


 


किसी ने कहा है, 


मजदूर होना बहुत ही मजबूर होना है।


दर्द यह है कि 


मजदूर का दर्द कोई नहीं समझ सकता है। 


लोग चिकित्सालयों में पड़े जनों द्वारा अपनों को निकट से न देख पाने का दर्द जान सकते हैं, 


सड़क पर, मंदिरों के द्वार पर, कभी किन्हीं चौराहों व भीड़ में भीख माँगने वाले भिखारियों का दर्द समझ सकते हैं, 


मानव के दिये उच्छिष्ट भोजन पर पलने वाले कुत्तों पर समानुभूति जता सकते हैं, 


लेकिन मजदूरों के लिए समानुभूति क्या, सहानुभूति जताना भी मुश्किल है। 


 


वे मानवों में म्लेच्छ से जो हैं, 


मलिन, अल्पशिक्षित और अपरिष्कृत भाषा वाले भी. 


लोग मिट्टी से दूर होने पर पीड़ा भरी कविता रच सकते हैं,


मिट्टी से सने, मिट्टी से बने जनों की पीड़ा पर कविता नहीं रच सकते. 


 


आज जबकि सब लोग ही अपने अपने घरों में बंद हैं, 


ये सड़क पर हैं। 


क्यों दर्द हो, वे सदा से सड़कों पर ही तो रहे हैं बहुधा, 


जब वे सड़क पर थे, वही सोते थे किनारे फुटपाथों पर, 


तभी कौन से बेहतर हो गए थे। 


 


उच्च वर्ग तो सदा से अपने महलों में बंद रहा है। 


वह तो मंच पर, रजतपट पर उपस्थित होने के लिए है। 


मध्य वर्ग दोनों के बीच रहा है, वह आज जरूर समाज से दूर है। लेकिन है तो घरों में, जीविका प्रभावित हुई है, लेकिन जीवन बहुत विश्रांति भरा हो गया है, अधिकांश का. 


 


तो मजदूर की पीड़ा उच्च व मध्य दोनों वर्ग के लिए टीवी की भीड़ है, जिसे किसी मूवी या डॉक्यूमेंटरी की तरह देखा जा सकता है। 


 


श्रमजीवी जगत् की समस्या को बहुधा बुद्धिजीवी जगत् उठाता रहा है। 


वह उठा रहा है यह बात कि 


वे जो विदेश में फँसे थे, 


हवाई जहाज में बिठा कर लाए गए, 


वे जो देश में फँसे हैं, 


वे बस से भी नहीं जा सकते, 


ऐसे बेबस कर दिए गए हैं। 


तर्क प्रतितर्क हो सकते हैं कि 


इनके जाने में कहीं अलग रहने की व्यवस्था ही नहीं है, 


लेकिन इससे उनकी समस्या तो हल न हुई ना! 


 


मार्क्स कहते थे, 


सर्वहारा का कोई देश नहीं होता। 


सच ही तो कहा था। 


दुःख यही है कि उनको भावना की दृष्टि से नहीं देखा जाता। 


सर्वहारा तो वैसे जन हैं, जिनमें आत्मा है कोई, हृदय है कोई, मन है कोई; ऐसा मानना ही नहीं चाहिए. 


उनकी देह है कोई, ऐसा भी नहीं ही मानना चाहिए, 


वे तो यंत्र भर हैं, वो भी सबसे पुरानी तकनीक के, 


सबसे सस्ते, सबसे सुलभ. 


 


कोई पुरानी कहानी याद हो आई है- 


"गरीबी" और "फकीरी" की. 


 


कहीं मंदिर का पुनर्निर्माण हो रहा था,


काम से थकी मजदूरन ने पल भर के लिए 


अपने भटकते लालों को प्यार किया. 


वह उनकी बचपन की बेबसी पर करुण होती, 


इससे पहले ही संयोगवश सदा 


भटकते रहने वाला फकीर भी पल भर के लिए वहीं बैठ गया. 


 


लोगों ने मंदिर का बाहर-भीतर देखा था, 


वे मजदूरन को बाहर की भिखारिन समझ दुतकारते रहे,


फकीर को भीतर भोग लगाने वाला पुजारी समझ नमन करते रहे.


 


फकीर बोला-


"दुनिया की निगाह में हमारी प्रकृति अलग भले हो,


मगर दुनियावाले की निगाह में हमारी नियति एक है."


 


मजदूरन बोली -


"बाबा,


बहुत फर्क़ है,


फकीरी और गरीबी में.


फकीर को बच्चे नहीं पालने होते, 


उसे बेटियों की शादियाँ नहीं करनी होतीं,


बूढे बुजुर्गों की दवा-दारू नहीं करनी पड़ती,


पेट के लिए मेहनत-मजूरी नहीं करनी पडती.


फकीरी में आदर है, बेफिक्री है, आज़ादी है,


गरीबी में बेबसी है, ठुकराये जाने की मजबूरी है."


 


फकीर ने कहा -


"पर आदमी तो आदमी है,


बाकी 


कुछ उसकी फितरत है


और फिर 


सबकी अपनी किस्मत है ..."


 


मजदूरन बात काटते हुए 


और पत्थर तोड़ते हुए बोली-


"बाबा,


पत्थर भी तो पत्थर है,


पर क्या तुम मानोगे 


जो मूर्तिमान है 


वह पुण्यवान है,


इसलिए ही पूजित है


और


वह जो बस सोपान है,


वह पापी है,


इसलिए ही पदलांछित है."


 


दरवेश फकीर ने वेदना के व्यंग्य पर 


सोचा, गुना, जाना, माना- 


"सचमुच, 


जो भी दर के भीतर है,


वह पूजित है,


क्योंकि वह परिष्कृत है.


जो दर के बाहर है,


वह वर्जित है,


क्योंकि वह सदा बहिष्कृत है। जय जन रखवाला।